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श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र

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नरेन्द्रं फणीन्द्रं सुरेन्द्रं अधीशं, शतेन्द्रं सु पुजै भजै नाय शीशं । मुनीन्द्रं गणीन्द्रं नमे जोड़ि हाथं , नमो देव देवं सदा पार्श्वनाथं ॥१॥ गजेन्द्रं मृगेन्द्रं गह्यो तू छुडावे, महा आगतै नागतै तू बचावे । महावीरतै युद्ध में तू जितावे, महा रोगतै बंधतै तू छुडावे ॥२॥ दुखी दु:खहर्ता सुखी सुखकर्ता, सदा सेवको को महा नन्द भर्ता । हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं, विषम डाकिनी विघ्न के भय अवाचं ॥३॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दीने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने । महासंकटों से निकारे विधाता, सबे सम्पदा सर्व को देहि दाता ॥४॥ महाचोर को वज्र को भय निवारे, महपौन को पुंजतै तू उबारे । महाक्रोध की अग्नि को मेघधारा, महालोभ शैलेश को वज्र मारा ॥५ महामोह अंधेर को ज्ञान भानं, महा कर्म कांतार को धौ प्रधानं । किये नाग नागिन अधो लोक स्वामी, हरयो मान दैत्य को हो अकामी ॥६॥ तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनं, तुही दिव्य चिंतामणि नाग एनं । पशु नर्क के दुःखतै तू छुडावे, महास्वर्ग में मुक्ति में तू बसावे ॥७॥ करे लोह को हेम पाषण नामी, रटे नाम सो क्यों ना हो मोक्षगामी । करै सेव ताकी करै देव सेवा, सुने बैन सोही लहे ज्ञान मेवा ॥८॥ ज

32 आगमो के नाम क्या है?

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  32 आगमो के नाम क्या है?       जय जिनेन्द्र , एक बार फिर से आप सबका इस ब्लॉग पर हार्दिक स्वागत है। आज हम उन 32 आगमो के बारे में कुछ विस्तार से जानेंगे , आज हम यह जानेंगे कि वह  32 आगम के नाम क्या है , तो चलिए शुरू करते हैं । श्वेतांबर स्थानकवासी परंपरा में 32 आगमो को चार  भागों में बताया गया है जो कि इस प्रकार हैं :- ग्यारह  अंग सूत्र , बारह उपांग , चार मूल सूत्र और चार छेद सूत्र । यह चारों किसी आगम के नाम नहीं है बल्कि आगमो को इन चारों में विभाजित किया गया है । अब आते हैं आगम के नाम , इसमें  1-32 तक जो नाम बताए गए वही आगमो के नाम है । ग्यारह अंग सूत्र :- 1)  आचारांग (आयारो ) 2)   सूत्रकृतांग (सूयगडो ) 3)   स्थानाङ्ग (ठाणं ) 4)   समवायाङ्ग (समवाओ )  5)   व्याख्याप्रज्ञप्ति (विवाहपण्णत्ती , भगवई ) 6)   ज्ञाताधर्मकथाङ्ग (णायाधम्मकहाओ ) 7)   उपासकदशाङ्ग (उवासगदसाओ ) 8)   अन्तकृद्दशाड़ (अंतगडदसाओ ) 9)   अनुत्तरौपपातिकदशा (अणुत्तरोववाइयदसाओ ) 10)  प्रश्नव्याकरण (पण्हावागरणाइं ) 11)  विपाक सूत्र (विवागसुयं )   बारह उपांग :- 12)  औपपातिक [उ (ओ )ववाइय ] 13)  राजप्रश्नीय (रायपसेणियं ) 14)  जीव

अष्टान्हिका पर्व का महत्व

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  अष्टान्हिका पर्व क्या? इसे शाश्वत पर्व भी कहा जाता है यह एक तीर्थ यात्रा का पर्व है। भगवान महावीर को समर्पित यह पर्व जैन धर्म के सबसे पुराने त्योहारों में से एक है। हमारे धर्म में मनाया जाने वाला यह पर्व विशेष स्थान रखता है। आठ दिन का यह पर्व वर्ष में तीन बार मनाया जाता है। आषाढ़ (जून-जुलाई), कार्तिक (अक्टूबर-नवंबर) एवं फ़ाल्गुन माह (फरवरी-मार्च) में इस पर्व को मनाया जाता है।  इस पर्व के दौरान कई जगहों पर मंदिर जी में सिद्धचक्र विधान भी आयोजित किये जाते हैं। अष्टान्हिका पर्व कैसे मनाए? अष्टान्हिका पर्व में श्रावक को घर छोड़कर किसी तीर्थ स्थल पर जाकर यह त्योहार मनाना चाहिए। क्योंकि जो आनंद तीर्थ स्थानों में है वो कहीं नही। तीर्थ स्थान पर जाकर श्रावक घर की सारी चिंताओं को छोड़कर तीर्थस्थान का भरपूर आनंद ले सकता है। ऐसे कहा जाता है कि अष्टान्हिका पर्व के दौरान देवता भी इस त्योहार को मनाते हैं। श्रावक को इस पर्व के दौरान नित्य प्रतिदिन देव दर्शन, पूजा-अर्चना और श्री जी का अभिषेक करना चाहिए। रात्रि भोजन का त्याग एवं व्रत-उपवास भी करना चाहिए। हमें कम से कम इस शाश्वत पर्व के दौरान श्रावक के मूल

सिमंधर स्वामी

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  सीमंधर स्वामी कहाँ हैं? [ संपादित करें ] तीर्थंकर सीमंधर स्वामी महाविदेह क्षेत्र में रहते हैं जो एक अलग जैन पौराणिक लोक है।(देखें  जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान ) [1] [2] [3] पांच ग्रहों के भरत क्षेत्र में वर्तमान में 5 वीं Ara (एक अपमानित समय-चक्र में जो तीर्थंकरों नहीं अवतार). [4] [5]  सबसे हाल ही में तीर्थंकर पर मौजूद भरत क्षेत्र था  महावीर , जिसे इतिहासकारों का अनुमान है के बीच में रहते थे 599-527 ईसा पूर्व में पिछले एक चक्र के 24 तीर्थंकरों. [6] [7] पर महाविदेह क्षेत्र, 4 Ara (एक आध्यात्मिक स्तर पर उन्नत समय-चक्र) मौजूद है लगातार. वहाँ, रहने वाले तीर्थंकरों सदा अवतार है. [8] [4]  वहाँ रहे हैं 5 महाविदेह क्षेत्र, प्रत्येक एक अलग ग्रह है। वर्तमान में, वहाँ रहे हैं 4 तीर्थंकरों में रहने वाले प्रत्येक महाविदेह क्षेत्र है. इस प्रकार के एक कुल रहे हैं 20 तीर्थंकरों वहाँ रहने वाले, सीमंधर स्वामी होने के नाते उनमें से एक है. [2] [9] विवरण के सीमंधर स्वामी के जीवन [ संपादित करें ] जैन पौराणिक ब्रह्मांड के अनुसार सीमंधर स्वामी वर्तमान में मौजूद रहने वाले तीर्थंकर, एक  अरिहन्त है, एक और दुनिया (व

जैन धर्म का इतिहास

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  जैन धर्म   भारत की श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन   धर्म   और   दर्शन   है।   जैन   अर्थात् कर्मों का नाश करनेवाले 'जिन भगवान' के अनुयायी।   सिन्धु घाटी   से मिले जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है। सम्मेदशिखर ,  राजगिर ,  पावापुरी ,  गिरनार , शत्रुंजय,  श्रवणबेलगोला  आदि जैनों के प्रसिद्ध  तीर्थ  हैं।  पर्यूषण  पर्व या दशलक्षण,  दीपावली ,  श्रुत पंचमी और  रक्षाबंधन  इनके मुख्य त्यौहार हैं।  अहमदाबाद ,  महाराष्ट्र ,  उत्तर प्रदेश  और  बंगाल  आदि के अनेक जैन आजकल भारत के अग्रगण्य उद्योगपति और व्यापारियों में गिने जाते हैं। जैन धर्म का उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। जैन ग्रंथो के अनुसार  धर्म  वस्तु का स्वाभाव समझाता है, इसलिए जब से  सृष्टि  है तब से धर्म है, और जब तक सृष्टि है, तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा। इतिहासकारो द्वारा  [2] [3] [4] [5] [6]  जैन धर्म का मूल भी  सिंधु घाटी सभ्यता  से जोड़ा जाता है जो  हिन्द आर्य प्रवास  से पूर्व की देशी आध्यात्मिकता को दर्शाता है। सिन्धु घाटी से मिले जैन शिलालेख भी जैन धर्म के सब

तीर्थंकर महावीर स्वामी का जीवन-परिचय :

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  Lord Mahavira Swami Biography in Hindi महावीर स्वामी(Mahavira Swami) का जन्म एक राजसी क्षत्रिय परिवार में हुआ। इनके पिता राजा सिध्दार्थ और माता रानी त्रिशला थीं। महावीर जी का जन्म ईसा से 599 वर्ष पहले चैत्र शुक्ल तेरस को हुआ था। इनके जन्म दिवस को आज महावीर जयंती के नाम से जाना जाता है। इनका जन्म स्थल कुण्डग्राम था जो अब बिहार में है। महावीर स्वामी के बचपन का नाम “वर्धमान” था। बचपन में ही ये बहुत वीर स्वभाव के थे इसलिए इनका नाम “महावीर” पड़ा। यूँ तो महावीर एक राजसी परिवार से थे, उनका रहन सहन उच्च कोटि का था और किसी तरह की कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन वास्तव महावीर जी का जन्म दुनिया को ज्ञान बाँटने के लिए ही हुआ था। राजसी वैभव के बावजूद उनका मन राजपाट में बिल्कुल नहीं लगता था। ऊँचे महल और शानशौकत उन्हें फीकी नजर आती थी। राजा सिध्दार्थ ने उनका विवाह यशोधरा से करने का प्रस्ताव रखा तो उसके लिए भी महावीर स्वामी तैयार नहीं थे। लेकिन पिता की आज्ञा की वजह से उन्होंने यशोधरा से विवाह किया और इससे उनकी एक सुन्दर पुत्री प्रियदर्शना ने जन्म लिया। हालाँकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ऐसी मान्यता है कि वर