जैन धर्म का इतिहास

 जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला प्राचीन धर्म और दर्शन है। जैन अर्थात् कर्मों का नाश करनेवाले 'जिन भगवान' के अनुयायी। सिन्धु घाटी से मिले जैन अवशेष जैन धर्म को सबसे प्राचीन धर्म का दर्जा देते है।
सम्मेदशिखरराजगिरपावापुरीगिरनार, शत्रुंजय, श्रवणबेलगोला आदि जैनों के प्रसिद्ध तीर्थ हैं। पर्यूषण पर्व या दशलक्षण, दीपावलीश्रुत पंचमीऔर रक्षाबंधन इनके मुख्य त्यौहार हैं। अहमदाबादमहाराष्ट्रउत्तर प्रदेश और बंगाल आदि के अनेक जैन आजकल भारत के अग्रगण्य उद्योगपति और व्यापारियों में गिने जाते हैं।
जैन धर्म का उद्भव की स्थिति अस्पष्ट है। जैन ग्रंथो के अनुसार धर्म वस्तु का स्वाभाव समझाता है, इसलिए जब से सृष्टि है तब से धर्म है, और जब तक सृष्टि है, तब तक धर्म रहेगा, अर्थात् जैन धर्म सदा से अस्तित्व में था और सदा रहेगा। इतिहासकारो द्वारा [2][3][4][5][6] जैन धर्म का मूल भी सिंधु घाटी सभ्यता से जोड़ा जाता है जो हिन्द आर्य प्रवास से पूर्व की देशी आध्यात्मिकता को दर्शाता है। सिन्धु घाटी से मिले जैन शिलालेख भी जैन धर्म के सबसे प्राचीन धर्म होने की पुष्टि करते है। [7][8][9] अन्य शोधार्थियों के अनुसार श्रमण परम्परा ऐतिहासिक वैदिक धर्म के हिन्द-आर्य प्रथाओं के साथ समकालीन और पृथक हुआ।[10]
जैन ग्रंथो (आगम्) के अनुसार वर्तमान में प्रचलित जैन धर्म भगवान आदिनाथ के समय से प्रचलन में आया। यहीं से जो तीर्थंकर परम्परा प्रारम्भ हुयी वह भगवान महावीर या वर्धमान तक चलती रही जिन्होंने ईसा से ५२७ वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्त किया था। भगवान महावीर के समय से पीछे कुछ लोग विशेषकर यूरोपियन विद्वान् जैन धर्म का प्रचलित होना मानते हैं। उनके अनुसार यह धर्म बौद्ध धर्म के पीछे उसी के कुछ तत्वों को लेकर और उनमें कुछ ब्राह्मण धर्म की शैली मिलाकर खडा़ किया गया। जिस प्रकार बौद्धों में २४ बुद्ध है उसी प्रकार जैनों में भी २४ तीर्थंकर है। जैन शब्द जिन शब्द से बना है। जिन बना है 'जि' धातु से जिसका अर्थ है जीतना। ''जिन अर्थात जीतने वाला'' जिसने स्वयं को जीत लिया उसे जितेंद्रिय कहते हैं।
ऐतिहासिक रूपरेखा[संपादित करें]
जैन मान्यता के अनुसार जैन धर्म अनादि काल से चला आया है अनंत काल तक चलता रहेगा। इस धर्म का प्रचार करने के लिये समय-समय पर अनेक तीर्थंकरों का आविर्भाव होता रहता है। जैन धर्म के २४ तीर्थंकरों में ऋषभ प्रथम और महावीर अंतिम तीर्थंकर थे।
महावीर के ११ गणधर (मुख्य शिष्य) थे -- इंद्रभूति (गौतम गणधर),अग्निभूति ,वायुभूति व्यक्तस्वामीसुधर्माचार्य , मंडितपुत्रमौर्यपुत्रअकंपित अचलभ्रातामेतार्यस्वामी और प्रभासस्वामी। महावीर स्वयं क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे लेकिन उनके सभी गणधर ब्राह्मण थे। इनमें गौतम स्वामी और सुधर्माचार्य को छोड़कर नौ गणधरों ने महावीर भगवान के जीवन काल में ही देह त्याग किया। जिस रात्रि को महावीर ने निर्वाण पाया उसी रात्रि को इंद्रभूति गौतम गणधर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई।
महावीर-निर्वाण के पश्चात् सुधर्माचार्य २० वर्ष तक जैन संघ के अधिपति रहे। बाद में संघ का भार जम्बूस्वामी के सुपुर्द कर दिया गया और इस प्रकार जैन परंपरा आगे बढ़ती रही। जम्बूस्वामी के पश्चात् केवलज्ञान और निर्वाण-गमन के द्वार बंद हो गए।
पार्श्वनाथ की मान्यता का अनुसरण कर लिच्छवि कुलोत्पन्न महावीर ने चतुर्विध संघ को दृढ़ बनाने के लिये गणतंत्रवादी आदर्श पर संघ के नियमों को संघटित किया। निर्ग्रंथ धर्म का प्रचार करने के लिए ज्ञातपुत्र महावीर ने बिहार में राजगृह, चंपा (भागलपुर), मछिया (मुंगेर), वैशाली (बसाढ़) और मिथिला (जनकपुर) आदि तथा उत्तर-प्रदेश में बनारसकौशांबी (कोसम) अयोध्याश्रावस्ति (सहेट-महेट) और स्थूणा (स्थानेश्वर) आदि स्थानों में विहार किया। उस समय यही आर्य क्षेत्र कहलाता था, शेष क्षेत्र अनार्य था।
मगध के राजा बिंबसार (श्रेणिक) और अजातशत्रु (कूणिक) को जैनधर्म का अनुयायी कहा गया है। राजसिंह श्रेणिक द्वारा महावीर से प्रश्न पूछे जाने का उल्लेख जैन शास्त्रों में आता है। चंपा नगरी में महावीर भगवान के समवसृत होने पर अजातशत्रु का अपने दलबल सहित उनके दर्शनार्थ गमन करने का वर्णन प्राचीन आगमों में मिलता है। नंद राजाओं के समय भद्रबाहु और स्थूलभद्र बड़े प्रतिभाशाली जैन आचार्य हुए जिन्होंने जैन धर्म को समुन्नत बनाया। आचार्य महागिरि स्थूलभद्र के प्रधान शिष्यों में से थे। तत्पश्चात् पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त मौर्य (३२५-३०२ ईo पूर्व) का राज्य हुआ। इस समय मगध में भयंकर दुष्काल पड़ा और जैन साधु मगध छोड़कर चले गए। दुष्काल समाप्त होने पर जब लौटकर आए तब पाटलिपुत्र में जैन आगमों की प्रथम वाचना हुई जो 'पाटलिपुत्र-वाचना' के नाम से कही जाती है। दिगंबर जैन परंपरा के अनुसार चंद्रगुप्त ने जैन दीक्षा ग्रहण की और दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला में देह-त्याग किया। चंद्रगुप्त के बाद अशोक (२७२-२३२ ईo पूo) के पौत्र राजा संप्रति (२२०-२११ ईo पूo) का नाम जैन ग्रंथों में बहुत आदर के साथ लिया जाता है। आचार्य महागिरि के शिष्य सुहस्ति ने संप्रति को जैन धर्म में दीक्षित किया। संप्रति ने महाराष्ट्र, आंध्र. द्रविड़, कुर्ग आदि प्रदेशों में अपने सुभटों को भेजकर जैन श्रमणसंघ की विशेष प्रभावना की।
कलिंग का सम्राट् खारवेल जैन धर्म का परम अनुयायी था। मगध का राजा नंद, जो जिन-प्रतिमा उठाकर ले गया था, उसे वह वापस लाया। कटक के पास उदयगिरि से प्राप्त, शिलालेखों से पता चलता है कि खारवेल ने ऋषभ की प्रतिमा निर्माण कराई और जैन साधुओं के रहने के लिये गुफाएँ खुदवाईं। तत्पश्चात् ईसवी सन् के पूर्व प्रथम शताब्दी में उज्जैनी के राजा विक्रमादित्य के पिता गर्दभिल्ल से उत्तेजित किए जाने पर कालकाचार्य का ईरान जाकर शक राजाओं को हिंदुस्तान में लाने का उल्लेख जैन ग्रंथों में मिलता है। कालकाचार्य को प्रतिष्ठान (पैठन, महाराष्ट्र) के राजा सातवाहन का समकालीन बताया गया है। फिर आचार्य पादलिप्त, वज्रस्वामी और आर्यरक्षित ने संघ का अधिपतित्व किया। इस प्रकार जैन धर्म की उन्नति होती गई और अब वह दूर दूर तक फैल गया।

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